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पु॒ना॒ने त॒न्वा॑ मि॒थः स्वेन॒ दक्षे॑ण राजथः। ऊ॒ह्याथे॑ स॒नादृ॒तम् ॥६॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

punāne tanvā mithaḥ svena dakṣeṇa rājathaḥ | ūhyāthe sanād ṛtam ||

पद पाठ

पु॒ना॒ने इति॑। त॒न्वा॑। मि॒थः। स्वेन॑। दक्षे॑ण। रा॒ज॒थः॒। ऊ॒ह्याथे॒ इति॑। स॒नात्। ऋ॒तम् ॥६॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:56» मन्त्र:6 | अष्टक:3» अध्याय:8» वर्ग:8» मन्त्र:6 | मण्डल:4» अनुवाक:5» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो शिल्पविद्या के पढ़ाने और पढ़नेवाले (स्वेन) अपने (दक्षेण) बलयुक्त (तन्वा) शरीर से (पुनाने) पवित्र करनेवाली सूर्य और पृथिवी को जान के (मिथः) परस्पर (राजथः) शोभित होते हैं और (सनात्) सनातन से (ऋतम्) सत्य का (ऊह्याथे) ऊहापोह करते हैं, वे सत्कार के योग्य होते हैं ॥६॥
भावार्थभाषाः - जो शिल्पविद्या में निपुण होते हैं, उनका सत्कार यथायोग्य राजा आदि को करना चाहिये ॥६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

यौ शिल्पविद्यापकाऽध्येतारौ स्वेन दक्षेण तन्वा पुनाने विदित्वा मिथो राजथः सनाद् ऋतमूह्याथे तौ सत्कर्त्तव्यौ भवथः ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (पुनाने) पवित्रकारिके (तन्वा) शरीरेण (मिथः) परस्परम् (स्वेन) स्वकीयेन (दक्षेण) बलयुक्तेन (राजथः) (ऊह्याथे) वितर्कयथः (सनात्) सनातनात् (ऋतम्) सत्यम् ॥६॥
भावार्थभाषाः - ये शिल्पविद्यायां निपुणा जायन्ते तेषां सत्कारो यथायोग्यं राजादिभिः कर्त्तव्यः ॥६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे शिल्पविद्येमध्ये निपुण असतात, राजाने त्यांचा यथायोग्य सत्कार करावा. ॥ ६ ॥